“`html
लखनऊ चिकनकारी: कारीगरों की अनमोल विरासत, पीढ़ियों का अद्भुत शिल्प
लखनऊ शहर अपने आप में खास है। इसकी तहज़ीब, इसका खाना और इसकी कला। यहां की सबसे मशहूर कला है चिकनकारी। यह सिर्फ कपड़ों पर की गई कढ़ाई नहीं है। यह कहानी है। यह एक परंपरा है। यह उन हाथों का कमाल है जिन्होंने इसे सालों से संभाला है। हम बात कर रहे हैं लखनऊ के चिकनकारी कारीगरों की। ये वो लोग हैं जिन्होंने इस कला को पीढ़ियों से जिंदा रखा है। इनकी मेहनत, इनका लगन ही इस कला की जान है।
चिकनकारी का काम बहुत नाजुक होता है। इसे करने में धैर्य और हुनर चाहिए। एक-एक टाँका सोच समझ कर लगाया जाता है। यह कोई मशीनी काम नहीं है। यह हाथ का काम है। इसमें दिल लगता है। इसमें समय लगता है। हर टुकड़ा अपने आप में अनोखा होता है। कारीगर अपनी कला से बेजान कपड़े में जान डाल देते हैं।
यह कला सिर्फ लखनऊ में नहीं, दुनिया भर में मशहूर है। लेकिन इसकी असली जड़ें यहीं हैं। यहां के कारीगर ही इसके सच्चे रखवाले हैं। उनकी जिंदगी चिकनकारी के इर्द-गिर्द घूमती है। उनका घर, उनका परिवार, उनका भविष्य सब इससे जुड़ा है।
चिकनकारी का सुनहरा इतिहास
चिकनकारी का इतिहास काफी पुराना है। कहते हैं कि इसे मुग़ल काल में भारत लाया गया। यह कला फारस (ईरान) से आई थी। मुग़ल बादशाह जहांगीर की बेगम नूरजहां को यह कला बहुत पसंद थी। वह इसे भारत में लेकर आईं। उन्होंने इसे खूब बढ़ावा दिया। खासकर लखनऊ में इसे खास पहचान मिली।
लखनऊ के नवाबों को भी चिकनकारी बहुत पसंद आई। उन्होंने इसे अपने दरबार का हिस्सा बनाया। कारीगरों को इज्जत मिली। उन्हें काम मिला। यह कला शाही परिवारों तक सीमित नहीं रही। धीरे-धीरे यह आम लोगों में भी मशहूर हुई। यह लखनऊ की संस्कृति का हिस्सा बन गई।
उस समय चिकनकारी का काम महीन मलमल पर होता था। सफेद धागे से सफेद कपड़े पर काम होता था। इसे ‘तनज़ेब’ कहते थे। यह बहुत ही नाजुक और खूबसूरत दिखता था। समय के साथ इसमें बदलाव आए। रंगीन धागे इस्तेमाल होने लगे। अलग-अलग तरह के कपड़ों पर काम होने लगा। लेकिन हाथ का काम आज भी वही है। वही हुनर, वही मेहनत।
कारीगरों की दुनिया: धागों और सपनों का ताना-बाना
चिकनकारी कारीगरों की जिंदगी आसान नहीं होती। उनका काम बहुत मेहनत वाला है। उन्हें घंटों एक जगह बैठकर काम करना पड़ता है। अक्सर घर के छोटे से कोने में बैठकर। दिन की रोशनी में या लैंप की हल्की रोशनी में। उनकी आँखें कमजोर होती हैं। पीठ दुखती है। लेकिन उनके हाथों की उंगलियां चलती रहती हैं। धागों से खेलते हुए।
रोजमर्रा की जिंदगी
एक आम चिकनकारी कारीगर का दिन सुबह जल्दी शुरू होता है। घर का काम निपटाकर वे अपने अड्डे पर बैठ जाते हैं। उनका अड्डा उनका घर ही होता है। एक चटाई या छोटी चौकी। उनके पास कपड़ा होता है जिस पर डिजाइन छपा होता है। साथ में होती है सुई और धागे का बंडल। वे शांति से बैठ जाते हैं और काम शुरू करते हैं। यह काम अक्सर महिलाएं करती हैं। लेकिन पुरुष भी इस काम से जुड़े हैं। वे डिजाइन बनाने, कपड़ा काटने और बेचने का काम करते हैं।
एक दिन में कारीगर कितना काम कर पाते हैं, यह उस डिजाइन पर निर्भर करता है। अगर डिजाइन घना है, तो समय ज्यादा लगेगा। अगर हल्का है, तो जल्दी होगा। मजदूरी काम के हिसाब से मिलती है। यह अक्सर बहुत कम होती है। उनकी मेहनत के हिसाब से उन्हें बहुत कम पैसा मिलता है।
हुनर सीखना: पीढ़ियों से मिली सौगात
चिकनकारी का हुनर स्कूल में नहीं सिखाया जाता। यह घरों में सीखा जाता है। मां अपनी बेटी को सिखाती है। दादी अपनी पोती को सिखाती है। यह परिवार का हुनर है। बच्चे छोटी उम्र से ही इसे देखना शुरू कर देते हैं। वे बड़े होकर अपनी मां या दादी की मदद करने लगते हैं। पहले छोटे-छोटे टाँके सीखते हैं। फिर बड़े डिजाइन बनाने लगते हैं।
यह सीखना सालों का सफर है। इसमें बहुत धीरज चाहिए। बारीकियों को समझना होता है। कौन सा टाँका कहाँ लगाना है। धागे को कैसे खींचना है। यह सब सिर्फ देखकर और करके आता है। कोई लिखित किताब नहीं है। यह ज्ञान एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक जुबानी और हाथों से जाता है। यह इस कला की सबसे बड़ी ताकत है।
चुनौतियाँ और संघर्ष
कारीगरों के सामने कई चुनौतियाँ हैं। सबसे बड़ी चुनौती है कम मजदूरी। बिचौलिये अक्सर उनका फायदा उठाते हैं। वे कारीगरों से बहुत कम दाम पर काम खरीदते हैं और बाजार में महंगे बेचते हैं। कारीगरों को उनकी मेहनत का पूरा फल नहीं मिलता।
दूसरी चुनौती है सेहत की। घंटों एक जगह बैठकर काम करने से आँखें कमजोर हो जाती हैं। पीठ में दर्द होता है। सेहत का ख्याल रखना मुश्किल होता है। उन्हें काम करना जरूरी है क्योंकि यही उनकी रोजी-रोटी है।
मशीन से होने वाला काम भी एक चुनौती है। मशीन चिकनकारी हाथ के काम जैसी नहीं होती। उसमें वो फिनिशिंग, वो बारीकी नहीं होती। लेकिन वह सस्ती होती है। लोग सस्ती चीज खरीदना चाहते हैं। इससे हाथ का काम करने वाले कारीगरों को मुश्किल होती है। उन्हें अपने काम का सही दाम नहीं मिलता।
चिकनकारी बनने की प्रक्रिया: हर टाँके में कहानी
चिकनकारी का एक कपड़ा बनने में कई दिन लग सकते हैं। कभी-कभी हफ्ते भी। यह एक लंबी प्रक्रिया है। इसमें कई चरण होते हैं। हर चरण में कारीगर का हुनर दिखता है।
डिजाइन छापना
सबसे पहले कपड़े पर डिजाइन छापा जाता है। इसके लिए लकड़ी के ब्लॉक होते हैं। इन ब्लॉकों पर डिजाइन बना होता है। इन्हें एक खास पेस्ट में डुबोते हैं। यह पेस्ट नील और गोंद का बना होता है। इस पेस्ट को कपड़े पर ब्लॉक से छापते हैं। जहां-जहां पेस्ट लगता है, वहां डिजाइन बन जाता है। यह डिजाइन कपड़े पर कढ़ाई के लिए गाइड का काम करता है। यह पेस्ट धोने से निकल जाता है।
कढ़ाई करना: टाँकों का जादू
यह सबसे मुख्य चरण है। कारीगर छपे हुए डिजाइन पर सुई धागे से कढ़ाई करते हैं। चिकनकारी में कई तरह के टाँके होते हैं। हर टाँके का अपना नाम है। अपना तरीका है। और अपना असर है।
- टाँका (Tanka): यह सबसे आम टाँका है। सीधा और सपाट।
- जाली (Jaali): यह बहुत खास है। इसमें धागा तोड़कर कपड़े में छेद किए जाते हैं। यह ऐसा लगता है जैसे कोई जाली बनी हो। यह बिना कपड़े को काटे किया जाता है। यह हुनर का कमाल है।
- फन्दा (Phanda): यह एक गोल गांठ जैसा टाँका है। यह उभरा हुआ दिखता है। फूल की पंखुड़ियों या पत्तियों को भरने में इसका इस्तेमाल होता है।
- मुरी (Muri): यह फन्दे का छोटा रूप है। चावल के दाने जैसा दिखता है।
- तेपची (Tepchi): यह एक लंबा टाँका है। इसका इस्तेमाल डिजाइन की आउटलाइन बनाने में होता है।
- बखिया (Bakhiya): यह एक उल्टा टाँका है। इसमें कपड़े के पीछे से काम होता है। आगे की तरफ छोटे-छोटे टाँके दिखते हैं जो लहर जैसे लगते हैं।
कारीगर इन अलग-अलग टाँकों को मिलाकर सुंदर डिजाइन बनाते हैं। वे जानते हैं कि कहाँ कौन सा टाँका लगाना है। इससे डिजाइन में गहराई आती है। खूबसूरती बढ़ती है। एक साधारण फूल भी इन टाँकों से जीवंत हो उठता है। कढ़ाई करते समय धागे का तनाव सही रखना बहुत जरूरी है। अगर धागा ज्यादा खींच गया तो कपड़ा सिकुड़ जाएगा। अगर ढीला रहा तो काम साफ नहीं दिखेगा। यह सब अनुभव से आता है।
धुलाई और सफाई
जब कढ़ाई पूरी हो जाती है, तो कपड़े को धोया जाता है। यह पेस्ट वाला डिजाइन हटाने के लिए होता है। कपड़े को हल्के साबुन या रीठे से धोते हैं। धोते समय सावधानी रखनी पड़ती है ताकि कढ़ाई खराब न हो। सूखने के बाद इसे इस्त्री किया जाता है। अब यह कपड़ा पहनने या बेचने के लिए तैयार है। यह प्रक्रिया आखिरी है, पर बहुत जरूरी। यह कपड़े को साफ और सुंदर बनाती है।
विरासत को आगे बढ़ाना: पीढ़ियों का संकल्प
चिकनकारी कला का जिंदा रहना कोई चमत्कार नहीं है। यह कारीगरों के परिवारों का संकल्प है। उन्होंने इस कला को मरने नहीं दिया। इसे अपनी आने वाली पीढ़ियों को सिखाया।
पारिवारिक परंपरा
ज्यादातर कारीगर परिवार कई पीढ़ियों से यह काम कर रहे हैं। उनके खून में यह हुनर है। घर का माहौल ही ऐसा होता है। बच्चे बड़ों को काम करते देखते हैं। वे स्वाभाविक रूप से इसे सीख लेते हैं। यह उनकी पहचान का हिस्सा है। यह सिर्फ एक रोजगार नहीं है। यह उनकी संस्कृति है। उनकी विरासत है।
परिवार के सभी सदस्य अक्सर किसी न किसी तरह इस काम से जुड़े होते हैं। कोई कढ़ाई करता है, कोई धागा तैयार करता है, कोई डिजाइन छापता है, कोई बाजार तक ले जाता है। यह एक टीम वर्क है। यह परिवार को जोड़ता भी है।
नई पीढ़ी को सिखाना
आज की युवा पीढ़ी के सामने कई रास्ते हैं। वे पढ़ लिखकर कोई और काम भी कर सकते हैं। लेकिन बहुत से युवा अब भी चिकनकारी सीख रहे हैं। वे जानते हैं कि यह उनके पुरखों की देन है। वे इसे संभालना चाहते हैं। हालांकि, उन्हें इस काम में अच्छा भविष्य दिखने की जरूरत है। अगर उन्हें लगेगा कि इस काम में कमाई कम है, तो वे शायद इसे छोड़ दें।
यह जरूरी है कि युवा पीढ़ी को इस कला का महत्व समझाया जाए। उन्हें इसका आर्थिक पहलू मजबूत करने के तरीके बताए जाएं। ताकि वे गर्व से इस काम को अपना सकें। कुछ संस्थाएं और गैर-सरकारी संगठन (NGO) इस दिशा में काम कर रहे हैं। वे कारीगरों को सीधे ग्राहक से जोड़ रहे हैं। उन्हें नए डिजाइन और बाजार के बारे में बता रहे हैं। यह बहुत मददगार साबित हो रहा है।
आधुनिक चुनौतियाँ और उम्मीद की किरण
आज का समय बदल गया है। बाजार बदल गया है। कारीगरों को नई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।
बाजार का बदलना
रेडीमेड कपड़ों का चलन बढ़ा है। मशीन से बनी चिकनकारी भी बाजार में है। ग्राहक जल्दी में होते हैं। वे सस्ता माल चाहते हैं। हाथ की चिकनकारी में समय लगता है और वह महंगी होती है। इससे कारीगरों के लिए बाजार में टिके रहना मुश्किल होता है। उन्हें अपने काम का सही मूल्य समझाना पड़ता है।
नकली चिकनकारी भी एक समस्या है। कुछ लोग मशीन से बना काम हाथ का बताकर बेचते हैं। इससे असली कारीगरों का नुकसान होता है। ग्राहक भी धोखा खाते हैं। असली और नकली की पहचान करना मुश्किल हो जाता है।
लचीलापन और नए रास्ते
चुनौतियों के बावजूद, कारीगर हार नहीं मानते। वे लचीले हैं। वे नए तरीके अपना रहे हैं। वे सिर्फ कुर्ते नहीं बना रहे। वे साड़ियाँ, लहंगे, बेडशीट, टेबल कवर और यहाँ तक कि जूते और बैग पर भी चिकनकारी कर रहे हैं। वे अलग-अलग कपड़ों पर काम कर रहे हैं। सिल्क, जॉर्जेट, शिफॉन जैसे फैब्रिक इस्तेमाल कर रहे हैं। वे रंगीन धागों और मोतियों का भी प्रयोग कर रहे हैं। इससे चिकनकारी में नयापन आ रहा है। यह युवा ग्राहकों को भी पसंद आ रहा है।
ऑनलाइन प्लेटफॉर्म भी कारीगरों की मदद कर रहे हैं। कुछ कारीगर सीधे सोशल मीडिया या वेबसाइट के जरिए अपना सामान बेच रहे हैं। इससे बिचौलियों की भूमिका कम हो रही है। उन्हें अपनी मेहनत का ज्यादा हिस्सा मिल रहा है। ग्राहक भी सीधे कारीगर से खरीदकर खुश हैं। उन्हें असली और अच्छी चीज मिल रही है।
भविष्य की ओर: कला को बचाना है
लखनऊ की चिकनकारी सिर्फ एक कला नहीं है। यह एक संस्कृति है। एक इतिहास है। और हजारों कारीगर परिवारों की जिंदगी है। इस कला का भविष्य हमारे हाथ में है। अगर हम, ग्राहक, इस कला की कद्र करेंगे। असली हाथ की चिकनकारी खरीदेंगे। कारीगरों को उनका सही दाम देंगे। तो यह कला और मजबूत होगी।
सरकार और संस्थाओं को भी आगे आना चाहिए। कारीगरों के लिए बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएँ हों। उनके बच्चों की पढ़ाई का इंतजाम हो। उन्हें बाजार तक पहुँचने में मदद मिले। नकली चिकनकारी को रोकने के लिए कदम उठाए जाएं।
कारीगरों का हुनर अनमोल है। यह सदियों की मेहनत का नतीजा है। यह हुनर जिंदा रहना चाहिए। यह तभी होगा जब हम सब मिलकर कोशिश करेंगे। लखनऊ के ये कारीगर चुपचाप अपना काम कर रहे हैं। वे अपनी कला से दुनिया को खूबसूरत बना रहे हैं। हमें उनकी कहानी सुननी चाहिए। उनके काम को समझना चाहिए। और उनकी कला को सम्मान देना चाहिए।
हर चिकनकारी के कपड़े में एक कहानी होती है। उस कारीगर के हाथों की कहानी। उसके परिवार की कहानी। लखनऊ की कहानी। अगली बार जब आप कोई चिकनकारी का कपड़ा देखें, तो सिर्फ उसकी सुंदरता न देखें। उस पर की गई मेहनत को देखें। उस पर लगाए गए एक-एक टाँके को महसूस करें। आप महसूस करेंगे कि आपने सिर्फ कपड़ा नहीं खरीदा, आपने एक विरासत को सहारा दिया है। आपने एक कारीगर के चेहरे पर मुस्कान लाने में मदद की है। यही इस कला का असली जादू है।
“`